Thursday 6 February 2014

क्रिकेट में जो स्थान डॉन ब्रैडमैन, फ़ुटबाल में पेले और टेनिस में रॉड लेवर का है, हॉकी में वही स्थान ध्यानचंद का है!

क्रिकेट में जो स्थान डॉन ब्रैडमैन, फ़ुटबाल में पेले और टेनिस में रॉड लेवर का है, हॉकी में वही स्थान ध्यानचंद का है!
सेंटर फ़ॉरवर्ड के रूप में उनकी तेज़ी और फ़ुर्ती इतनी ज़बरदस्त थी कि उनके जीवनकाल में ही उनको हॉकी का जादूगर कहा जाने लगा था!हॉलैंड में तो एक बार उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है! जापान में उनकी हॉकी स्टिक का यह जानने के लिए परीक्षण किया गया कि कहीं उसमें गोंद तो नहीं लगा है!1936 के ओलंपिक फ़ाइनल के तुरंत बाद, जिसमें भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया था, हिटलर ने स्वयं ध्यानचंद को जर्मन सेना में शामिल कर एक बड़ा पद देने की पेशकश की थी ! लेकिन उन्होंने भारत में ही रहना पसंद किया!वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए दिखाया गया है!हॉकी के इस जादूगर का जन्म आज से 100 वर्ष पहले 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद में हुआ था लेकिन वो बड़े हुए झाँसी में जहाँ उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में हवलदार थे!16 वर्ष की उम्र में ही ध्यानचंद भारतीय सेना में शामिल हो गए! उनकी रेजीमेंट के कोच, बल्ले तिवारी ने उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा!

ध्यानचंद,jhansi,up,Uttar Pradesh,Bundelkhand,major dhyan chand
ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता है!
शुरुआत: 21 वर्ष की उम्र में उन्हें न्यूज़ीलैंड जाने वाली भारतीय टीम में चुन लिया गया ! इस दौरे में भारतीय सेना की टीम ने 21 में से 18 मैच जीते!23 वर्ष की उम्र में ध्यानचंद 1928 के एम्सटरडम ओलंपिक में पहली बार हिस्सा ले रही भारतीय हॉकी टीम के सदस्य थे. यहाँ चार मैचों में भारतीय टीम ने 23 गोल किए!
गोलों की संख्या से ज़्यादा भारतीय हॉकी टीम की लय और कलाकारी ने लोगों का मन मोहा. ध्यानचंद के बारे में मशहूर है कि उन्होंने हॉकी के इतिहास में सबसे ज़्यादा गोल किए!1932 में लॉस एंजिल्स ओलंपिक में भारत ने अमरीका को 24-1 के रिकॉर्ड अंतर से हराया. इस मैच में ध्यानचंद और उनके बड़े भाई रूप सिंह ने आठ-आठ गोल ठोंके! 1936 के बर्लिन ओलंपिक में ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे. 15 अगस्त, 1936 को हुए फ़ाइनल में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया.उस वक्त उन्हें यह अंदाज़ा ही नहीं था कि 11 वर्षों के बाद यह दिन भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण बन जाएगा!आठ वर्षों तक चले विश्वयुद्ध के कारण दो ओलंपिक खेल नहीं हो पाए और दूसरे महान खिलाड़ियों, डॉन ब्रैडमैन और लेन हटन की तरह ध्यानचंद को भी मैदान से बाहर रहना पड़ा! 1948 में 43 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय हॉकी को अलविदा कहा.
ध्यानचंद पाकिस्तान हॉकी के पितामह दारा के साथ,ध्यानचंद,jhansi,up,Uttar Pradesh,Bundelkhand,major dhyan chand
पाकिस्तान हॉकी के पितामह इक़्तिदार हुसैन दारा के साथ ध्यानचंद
करिश्माई खिलाड़ी :1948 और 1952 में भारत के लिए खेलनेवाले नंदी सिंह का कहना है कि ध्यानचंद के खेल की ख़ासियत थी कि वो गेंद को अपने पास ज़्यादा देर तक नहीं रखते थे. उनके पास बहुत नपे-तुले होते थे और वो किसी भी कोण से गोल कर सकते थे !1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान एक मैच में ध्यानचंद ने केडी सिंह बाबू को एक ज़बरदस्त पास दिया और उनकी तरफ़ पीठ कर अपने ही गोल की तरफ चलने लगे !बाद में बाबू ने उनकी इस अजीब हरकत का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि अगर तुम उस पास पर भी गोल नहीं मार पाते तो तुम्हें भारतीय टीम में बने रहने का कोई हक़ नहीं है ! उनके पुत्र ओलंपियन अशोक कुमार भी बताते हैं कि 50 वर्ष की उम्र में भी प्रेक्टिस के दौरान वो डी के अंदर से दस में दस शॉट भारतीय गोलकीपर को छकाते हुए मार सकते थे !
एक और ओलंपियन केशवदत्त कहते हैं कि ध्यानचंद हॉकी के मैदान को इस तरह देखते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है!
उनको हमेशा मालूम रहता था कि उनकी टीम का हर खिलाड़ी कहाँ है और अगर उनकी आँख पर पट्टी भी बाँध दी जाए, तब भी उनका पास बिल्कुल सही जगह पर पहुँचता था!1968 के मैक्सिको ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रहे गुरुबक्श सिंह भी याद करते है कि 1959 में जब ध्यानचंद 54 वर्ष के थे, तब भी भारतीय टीम का कोई सदस्य बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था !1979 में जब वो बीमार हुए तो उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के जनरल वार्ड में भर्ती करवाया गया !उनपर एक लेख छपने के बाद उन्हें एक कमरा मिल सका पर उन्हें बचाया नहीं जा सका !
झाँसी में उनका अंतिम संस्कार किसी घाट पर न होकर उस मैदान पर किया गया, जहाँ वो हॉकी खेला करते थे !

अपने बेटे अशोक कुमार की शादी में ध्यानचंद,ध्यानचंद,jhansi,up,Uttar Pradesh,Bundelkhand,major dhyan chand
अपने पुत्र की अशोक की शादी में ओलंपियन असलम शेर ख़ा (बाएँ),ध्यान चंद और अशोक कुमार
अपनी आत्मकथा 'गोल' में उन्होंने लिखा था, "आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूँ."वो साधारण आदमी नहीं थे लेकिन वो इस दुनिया से गए बिल्कुल साधारण आदमी की तरह.

King Hardol- बुंदेलखंड (bundelkhand)

बुंदेलखंड (bundelkhand) में ओरछा (orchha) पुराना राज्य है। इसके राजा बुंदेले हैं। इन बुंदेलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है।
एक समय ओरछा के राजा जुझारसिंह थे। ये बड़े साहसी और बुद्धिमान थे। शाहजहाँ उस समय दिल्ली के बादशाह थे। जब शाहजहाँ लोदी ने बलवा किया और वह शाही मुल्क को लूटता-पाटता ओरछे की ओर आ निकला, तब राजा जुझारसिंह ने उससे मोरचा लिया। राजा के इस काम से गुणग्राही शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरंत ही राजा को दक्खिन का शासन-भार सौंपा। उस दिन ओरछा में बड़ा आनंद मनाया गया।
शाही दूत खिलअत और सनद ले कर राजा के पास आया। जुझारसिंह को बड़े-बड़े काम करने का अवसर मिला। सफ़र की तैयारियाँ होने लगीं, तब राजा ने अपने छोटे भाई हरदौलसिंह को बुला कर कहा, "भैया, मैं तो जाता हूँ। अब यह राज-पाट तुम्हारे सुपुर्द है तुम भी इसे जी से प्यार करना! न्याय ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। न्याय की गढ़ी में कोई शत्रु नहीं घुस सकता, चाहे वह रावण की सेना या इंद्र का बल लेकर आए, पर न्याय वही सच्चा है, जिसे प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल न्याय ही करना न होगा, बल्कि प्रजा को अपने न्याय का विश्वास भी दिलाना होगा और मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम स्वयं समझदार हो।" यह कह कर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और हरदौलसिंह के सिर पर रख दीं। हरदौल रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया। इसके बाद राजा अपनी रानी से विदा होने के लिए रनिवास आए। रानी दरवाज़े पर खड़ी रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर पड़ी। जुझारसिंह ने उठा कर उसे छाती से लगाया और कहा, "प्यारी, यह रोने का समय नहीं है। बुंदेलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसर पर रोया नहीं करतीं।
ईश्वर ने चाहा, तो हम-तुम जल्द मिलेंगे। मुझ पर ऐसी ही प्रीति रखना। मैंने राज-पाट हरदौल को सौंपा है, वह अभी लड़का है। उसने अभी दुनिया नहीं देखी है। अपनी सलाहों से उसकी मदद करती रहना।" रानी की ज़बान बंद हो गई। वह अपने मन में कहने लगी, "हाय यह कहते हैं, बुंदेलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर रोया नहीं करतीं। शायद उनके हृदय नहीं होता, या अगर होता है तो उसमें प्रेम नहीं होता!" रानी कलेजे पर पत्थर रख कर आँसू पी गई और हाथ जोड़ कर राजा की ओर मुस्कराती हुई देखने लगी; पर क्या वह मुस्कराहट थी। जिस तरह अंधेरे मैदान में मशाल की रोशनी अंधेरे को और भी अथाह कर देती है, उसी तरह रानी की मुस्कराहट उसके मन के अथाह दुख को और भी प्रकट कर रही थी। जुझारसिंह के चले जाने के बाद हरदौलसिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके न्याय और प्रजावात्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझारसिंह को भूल गए। जुझारसिंह के शत्रु भी थे और मित्र भी; पर हरदौलसिंह का कोई शत्रु न था, सब मित्र ही थे। वह ऐसा हँसमुख और मधुर भाषी था कि उससे जो बातें कर लेता, वही जीवन भर उसका भक्त बना रहता। राज भर में ऐसा कोई न था जो उसके पास तक न पहुँच सकता हो। रात-दिन उसके दरबार का फाटक सबके लिए खुला रहता था। ओरछे को कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब न हुआ था। वह उदार था, न्यासी था, विद्या और गुण का ग्राहक था, पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था, वह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हद दर्जे को पहुँच गया था। जिस जाति के जीवन का अवलंब तलवार पर है, वह अपने राजा के किसी गुण पर इतना नहीं रीझती जितना उसकी वीरता पर। हरदौल अपने गुणों से अपनी प्रजा के मन का भी राजा हो गया, जो मुल्क और माल पर राज करने से भी कठिन है। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। उधर दक्खिन में जुझारसिंह ने अपने प्रबंध से चारों ओर शाही दबदबा जमा दिया, इधर ओरछे में हरदौल ने प्रजा पर मोहन-मंत्र फूँक दिया।
फाल्गुन का महीना था, अबीर और गुलाल से ज़मीन लाल हो रही थी। कामदेव का प्रभाव लोगों को भड़का रहा था। रबी ने खेतों में सुनहला फ़र्श बिछा रखा था और खलिहानों में सुनहले महल उठा दिए थे। संतोष इस सुनहले फ़र्श पर इठलाता फिरता था और निश्चिंतता उस सुनहले महल में ताने आलाप रही थी। इन्हीं दिनों दिल्ली का नामवर फेकैती कादिर खाँ ओरछे आया। बड़े-बड़े पहलवान उसका लोहा मान गए थे। दिल्ली से ओरछे तक सैंकड़ों मर्दानगी के मद से मतवाले उसके सामने आए, पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना भाग्य से नहीं, बल्कि मौत से लड़ना था। वह किसी इनाम का भूखा न था। जैसा ही दिल का दिलेर था, वैसा ही मन का राजा था। ठीक होली के दिन उसने धूम-धाम से ओरछे में सूचना दी कि "खुदा का शेर दिल्ली का कादिर खाँ ओरछा आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी हो, आ कर अपने भाग्य का निपटारा कर ले।" ओरछे के बड़े-बड़े बुंदेले सूरमा वह घमंड-भरी वाणी सुन कर गरम हो उठे। फाग और डफ की तान के बदले ढोल की वीर-ध्वनि सुनाई देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछा के पहलवानों और फेकैतों का सबसे बड़ा अड्डा था। संध्या को यहाँ सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुंदेलों की नाक थे, सैंकड़ों मैदान मारे हुए। ये ही दोनों पहलवान कादिर खाँ का घमंड चूर करने के लिए गए।
दूसरे दिन क़िले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछा के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले, अलबेले जवान थे, सिर पर खुशरंग बांकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमर में तलवार। और कैसे-कैसे बूढ़े थे, तनी हुईं मूँछें, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े, पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले। उनकी मर्दाना चाल-ढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे, "देखें आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं। पर बूढ़े कहते- ओरछा की हार कभी नहीं हुई, न होगी। वीरों का यह जोश देख कर राजा हरदौल ने बड़े ज़ोर से कह दिया, "खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे; पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाए- यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछा वाले तलवार से न जीत सके तो धांधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।"
सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाड़े पर चोट पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछाल कर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनों लँगोट कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गए। तब दोनों तरफ़ से तलवारें निकलीं और दोनों के बगलों में चली गईं। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगीं। पूरे तीन घंटे तक यही मालूम होता रहा कि दो अंगारे हैं। हज़ारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब कभी कालदेव गिरहदार हाथ चलाता या कोई पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दन आप ही आप उठ जाती; पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अंदर तलवारों की खींचतान थी; पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इससे भी बढ़ कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दु:ख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक कादिर खाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।
कालदेव के गिरते ही बुंदेलों को सब्र न रहा। हर एक के चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमंड की तस्वीर खिंच गई। हज़ारों आदमी जोश में आ कर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौल ने कहा, "खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े।" इस आवाज़ ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। दर्शकों को रोक कर जब वे अखाड़े में गए और कालदेव को देखा, तो आँखों में आँसू भर आए। जख्मी शेर ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गए थे।
आज का दिन बीता, रात आई; पर बुंदेलों की आँखों में नींद कहाँ। लोगों ने करवटें बदल कर रात काटी जैसे दुखित मनुष्य विकलता से सुबह की बाट जोहता है, उसी तरह बुंदेले रह-रह कर आकाश की तरफ़ देखते और उसकी धीमी चाल पर झुँझलाते थे। उनके जातीय घमंड पर गहरा घाव लगा था। दूसरे दिन ज्यों ही सूर्य निकला, तीन लाख बुंदेले तालाब के किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ़ चला, दिलों में धड़कन-सी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़े में उतरा था, बुंदेलों के हौसले बढ़े हुए थे, पर आज वह बात न थी। हृदय में आशा की जगह डर घुसा हुआ था। कादिर खाँ कोई चुटीला वार करता तो लोगों के दिल उछल कर होंठों तक आ जाते। सूर्य सिर पर चढ़ा जाता था और लोगों के दिल बैठ जाते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि भालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज़ था। उसने कई बार कादिर ख़ाँ को नीचा दिखलाया, पर दिल्ली का निपुण पहलवान हर बार सँभल जाता था। पूरे तीन घंटे तक दोनों बहादुरों में तलवारें चलती रहीं। एकाएक खटाके की आवाज़ हुई और भालदेव की तलवार के दो टुकड़े हो गए। राजा हरदौल अखाड़े के सामने खड़े थे। उन्होंने भालदेव की तरफ़ तेज़ी से अपनी तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेने के लिए झुका ही था कि कादिर खाँ की तलवार उसकी गर्दन पर आ पड़ी। घाव गहरा न था, केवल एक 'चरका' था; पर उसने लड़ाई का फैसला कर दिया।

हताश बुंदेले अपने-अपने घरों को लौटे। यद्यपि भालदेव अब भी लड़ने को तैयार था; पर हरदौल ने समझा कर कहा कि 'भाइयों, हमारी हार उसी समय हो गई जब हमारी तलवार ने जवाब दे दिया। यदि हम कादिर ख़ाँ की जगह होते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते और जब तक हमारे शत्रु के हाथ में तलवार न आ जाती, हम उस पर हाथ न उठाते; पर कादिर ख़ाँ में यह उदारता कहाँ? बलवान शत्रु का सामना करने में उदारता को ताक पर रख देना पड़ता है। तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवार की लड़ाई में हम उसके बराबर हैं अब हमको यह दिखाना रहा है कि हमारी तलवार में भी वैसा ही जौहर है!" इसी तरह लोगों को तसल्ली दे कर राजा हरदौल रनिवास को गए।
कुलीना ने पूछा, "लाला, आज दंगल का क्या रंग रहा?"
हरदौल ने सिर झुका कर जवाब दिया, "आज भी वही कल का-सा हाल रहा।"
कुलीना- क्या भालदेव मारा गया?
हरदौल - नहीं, जान से तो नहीं पर हार हो गई।
कुलीना - तो अब क्या करना होगा?
हरदौल - मैं स्वयं इसी सोच में हूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पड़ा था। हमारे पास धन न था, पर अपनी वीरता के सामने हम राज और धन कोई चीज़ न समझते थे। अब हम किस मुँह से अपनी वीरता का घमंड करेंगे ? ओरछा की और बुंदेलों की लाज अब जाती है।
कुलीना - क्या अब कोई आस नहीं है?
हरदौल - हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं है जो उससे बाजी ले जाए। भालदेव की हार ने बुंदेलों की हिम्मत तोड़ दी है। आज सारे शहर में शोक छाया हुआ है। सैंकड़ों घरों में आग नहीं जली। चिराग रोशन नहीं हुआ। हमारे देश और जाति की वह चीज़ जिससे हमारा मान था, अब अंतिम सांस ले रही है। भालदेव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकने के बाद मेरा मैदान में आना धृष्टता है; पर बुंदेलों की साख जाती है, तो मेरा सिर भी उसके साथ जाएगा। कादिर खाँ बेशक अपने हुनर में एक ही है, पर हमारा भालदेव कभी उससे कम नहीं। उसकी तलवार यदि भालदेव के हाथ में होती तो मैदान ज़रूर उसके हाथ रहता। ओरछे में केवल एक तलवार है जो कादिर ख़ाँ की तलवार का मुँह मोड़ सकती है। वह भैया की तलवार है। अगर तुम ओरछे की नाक रखना चाहती हो तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी अंतिम चेष्टा होगी। यदि इस बार भी हार हुई तो ओरछे का नाम सदैव के लिए डूब जाएगा।
कुलीना सोचने लगी, तलवार इनको दूँ या न दूँ। राजा रुक गए हैं। उनकी आज्ञा थी कि किसी दूसरे की परछाहीं भी उस पर न पड़ने पाए। क्या ऐसी दशा में मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूँ तो वे नाराज़ होंगे? कभी नहीं। जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समय में तलवार निकाली है, तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी। बुंदेलों की आन किसको इतनी प्यारी नहीं है? उससे ज़्यादा ओरछा की भलाई चाहने वाला कौन होगा? इस समय उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना ही आज्ञा मानना है। यह सोच कर कुलीना ने तलवार हरदौल को दे दी।
सवेरा होते ही यह ख़बर फैल गई कि राजा हरदौल कादिर ख़ाँ से लड़ने के लिए जा रहे हैं। इतना सुनते ही लोगों में सनसनी-सी फैल गई और चौंक उठे। पागलों की तरह लोग अखाड़े की ओर दौड़े। हर एक आदमी कहता था कि जब तक हम जीते हैं, महाराज को लड़ने नहीं देंगे, पर जब लोग अखाड़े के पास पहुँचे तो देखा कि अखाड़े में बिजलियाँ-सी चमक रही हैं। बुंदेलों के दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, उसका अनुमान करना कठिन है। उस समय उस लंबे-चौड़े मैदान में जहाँ तक निगाह जाती थी, आदमी ही आदमी नज़र आते थे, पर चारों तरफ़ सन्नाटा था। हर एक आँख अखाड़े की तरफ़ लगी हुई थी और हर एक का दिल हरदौल की मंगल-कामना के लिए ईश्वर का प्रार्थी था। कादिर ख़ाँ का एक-एक वार हज़ारों दिलों के टुकड़े कर देता था और हरदौल की एक-एक काट से मनों में आनंद की लहरें उठती थीं। अखाड़ों में दो पहलवानों का सामना था और अखाड़े के बाहर आशा और निराशा का। आख़िर घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और हरदौल की तलवार बिजली बनकर कादिर के सिर पर गिरी। यह देखते ही बुंदेले मारे आनंद के उन्मत्त हो गए। किसी को किसी की सुधि न रही। कोई किसी से गले मिलता, कोई उछलता और कोई छलाँगें मारता था। हज़ारों आदमियों पर वीरता का नशा छा गया। तलवारें स्वयं म्यान से निकल पड़ीं, भाले चमकने लगे। जीत की खुशी में सैंकड़ों जानें भेंट हो गईं। पर जब हरदौल अखाड़े से बाहर आए और उन्होंने बुंदेलों की ओर तेज़ निगाहों से देखा तो आन-की-आन में लोग सँभल गए। तलवारें म्यान में जा छिपीं। ख्य़ाल आ गया। यह खुशी क्यों, यह उमंग क्यों और यह पागलपन किसलिए? बुंदेलों के लिए यह कोई नई बात नहीं हुई। इस विचार ने लोगों का दिल ठंडा कर दिया। हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुंदेले के दिल में मान प्रतिष्ठा की ऊँची जगह पर बिठाया, जहाँ न्याय और उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी। वह पहले ही से सर्वप्रिय था और अब वह अपनी जाति का वीरवर और बुंदेला दिलावरी का सिरमौर बन गया।
राजा जुझारसिंह ने भी दक्षिण में अपनी, योग्यता का परिचय दिया। वे केवल लड़ाई में ही वीर न थे, बल्कि राज्य-शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबंध से दक्षिण प्रांतों का बलवान राज्य बना दिया और वर्ष भर के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वे ओरछे की तरफ़ चले। ओरछे की याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही। आह ओरछा (orchha)! वह दिन कब आएगा कि फिर तेरे दर्शन होंगे! राजा मंज़िलें मारते चले आते थे, न भूख थी, न प्यास, ओरछेवालों की मुहब्बत खींचे लिए आती थी। यहाँ तक कि ओरछे के जंगलों में आ पहुँचे। साथ के आदमी पीछे छूट गए।
दोपहर का समय था। धूप तेज़ थी। वे घोड़े से उतरे और एक पेड़ की छाँह में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे। सैंकड़ों बुंदेला सरदार उनके साथ थे। सब अभिमान के नशे में चूर थे। उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले बैठे थे देखा, पर वे अपने घमंड में इतने डूबे हुए थे कि इनके पास तक न आए। समझा कोई यात्री होगा। हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया। वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंह के सामने आए और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आँख मिल गई। पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। राजा ने भी उठ कर हरदौल को छाती से लगा लिया, पर उस छाती में अब भाई की मुहब्बत न थी। मुहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी और वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नंगे पैर उनकी तरफ़ न दौड़ा, उसके सवारों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की। संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुँचे। राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बजने लगी। हर जगह आनंदोत्सव होने लगा और तुरता-फुरती शहर जगमगा उठा।
आज रानी कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया। नौ बजे होंगे। लौंडी ने आकर कहा, "महाराज, भोजन तैयार है। दोनों भाई भोजन करने गए। सोने के थाल में राजा के लिए भोजन परोसा गया और चाँदी के थाल में हरदौल के लिए। कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चांदी का राजा के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह वर्ष भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझारसिंह तिलमिला गए। जबान से कुछ न बोले, पर तेवर बदल गए और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ़ घूर कर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष मालूम होता था। दो-चार ग्रास खा कर उठ आए। रानी उनके तेवर देख कर डर गई। आज कैसे प्रेम से उसने भोजन बनाया था, कितनी प्रतीक्षा के बाद यह शुभ दिन आया था, उसके उल्लास का कोई पारावार न था; पर राजा के तेवर देख कर उसके प्राण सूख गए। जब राजा उठ गए और उसने थाल को देखा, तो कलेजा धक से हो गया और पैरों तले से मिट्टी निकल गई। उसने सिर पीट लिया, "ईश्वर! आज रात कुशलतापूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे दिखाई नहीं देते।
राजा जुझारसिंह शीशमहल में लेटे। चतुर नाइन ने रानी का शृंगार किया और वह मुस्करा कर बोली, "कल महाराज से इसका इनाम लूँगी। यह कह कर वह चली गई, परंतु कुलीना वहाँ से न उठी। वह गहरे सोच में पड़ी हुई थी। उनके सामने कौन-सा मुँह लेकर जाऊँ? नाइन ने नाहक मेरा शृंगार कर दिया। मेरा शृंगार देख कर वे खुश भी होंगे? मुझसे इस समय अपराध हुआ है, मैं अपराधिनी हूँ, मेरा उनके पास इस समय बनाव-शृंगार करके जाना उचित नहीं। नहीं, नहीं, आज मुझे उनके पास भिखारिन के भेष में जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमा माँगूँगी। इस समय मेरे लिए यही उचित है। यह सोच कर रानी बड़े शीशे के सामने खड़ी हो गई। वह अप्सरा-सी मालूम होती थी। सुंदरता की कितनी ही तस्वीरें उसने देखी थीं; पर उसे इस समय शीशे की तस्वीर सबसे ज़्यादा खूबसूरत मालूम होती थी।
सुंदरता और आत्मरुचि का साथ है। हल्दी बिना रंग के नहीं रह सकती। थोड़ी देर के लिए कुलीना सुंदरता के मद से फूल उठी। वह तन कर खड़ी हो गई। लोग कहते हैं कि सुंदरता में जादू है और वह जादू, जिसका कोई उतार नहीं। धर्म और कर्म, तन और मन सब सुंदरता पर न्यौछावर है। मैं सुंदर न सही, ऐसी कुरूपा भी नहीं हूँ। क्या मेरी सुंदरता में इतनी भी शक्ति नहीं है कि महाराज से मेरा अपराध क्षमा करा सके? ये बाहु-लताएँ जिस समय उनके गले का हार होंगी, ये आँखें जिस समय प्रेम के मद से लाल होकर देखेंगी, तब क्या मेरे सौंदर्य की शीतलता उनकी क्रोधाग्नि को ठंडा न कर देंगी? पर थोड़ी देर में रानी को ज्ञात हुआ। आह! यह मैं क्या स्वप्न देख रही हूँ! मेरे मन में ऐसी बातें क्यों आती हैं! मैं अच्छी हूँ या बुरी हूँ उनकी चेरी हूँ। मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए। यह शृंगार और बनाव इस समय उपयुक्त नहीं है। यह सोच कर रानी ने सब गहने उतार दिए। इतर में बसी हुई रेशम की साड़ी अलग कर दी। मोतियों से भरी माँग खोल दी और वह खूब फूट-फूट कर रोई। यह मिलाप की रात वियोग की रात से भी विशेष दुखदायिनी है। भिखारिनी का भेष बना कर रानी शीशमहल की ओर चली। पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हटा जाता था। दरवाज़े तक आई, पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा। ऐसा जान पड़ा मानो उसके पैर थर्रा रहे हैं। राजा जुझारसिंह बोले, "कौन है? कुलीना! भीतर क्यों नहीं आ जाती?"
कुलीना ने जी कड़ा करके कहा, "महाराज, कैसे आऊँ? मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा पाती हूँ।"
राजा -"यह क्यों नहीं कहती कि मन दोषी है, इसलिए आँखें नहीं मिलने देता।
कुलीना - निस्संदेह मुझसे अपराध हुआ है, पर एक अबला आपसे क्षमा का दान माँगती है।
राजा - इसका प्रायश्चित करना होगा।
कुलीना - क्यों कर?
राजा - हरदौल के खून से।
कुलीना सिर से पैर तक काँप गई। बोली, "क्या इसलिए कि आज मेरी भूल से ज्योनार के थालों में उलट-फेर हो गया?"
राजा - नहीं, इसलिए कि तुम्हारे प्रेम में हरदौल ने उलट-फेर कर दिया!
जैसे आग की आँच से लोहा लाल हो जाता है, वैसे ही रानी का मुँह लाल हो गया। क्रोध की अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है, प्रेम और प्रतिष्ठा, दया और न्याय, सब जल के राख हो जाते हैं। एक मिनट तक रानी को ऐसा मालूम हुआ, मानो दिल और दिमाग दोनों खौल रहे हैं, पर उसने आत्मदमन की अंतिम चेष्टा से अपने को सँभाला, केवल इतना बोली - "हरदौल को अपना लड़का और भाई समझती हूँ।"
राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वर में बोले - "नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया। कुलीना, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था। मैं समझता था, चाँद-सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं टल सकता, पर आज मुझे मालूम हुआ कि वह मेरा लड़कपन था। बड़ों ने सच कहा है कि स्त्री का प्रेम पानी की धार है, जिस ओर ढाल पाता है, उधर ही बह जाता है। सोना ज़्यादा गरम होकर पिघल जाता है।
कुलीना रोने लगी। क्रोध की आग पानी बन कर आँखों से निकल पड़ी। जब आवाज़ वश में हुई, तो बोली, "आपके इस संदेह को कैसे दूर करूँ?"
राजा - हरदौल के खून से।
रानी - मेरे खून से दाग न मिटेगा?
राजा - तुम्हारे खून से और पक्का हो जाएगा।
रानी - और कोई उपाय नहीं है?
राजा - नहीं।
रानी - यह आपका अंतिम विचार है?
राजा - हाँ, यह मेरा अंतिम विचार है। देखो, इस पानदान में पान का बीड़ा रखा है। तुम्हारे सतीत्व की परीक्षा यही है कि तुम हरदौल को इसे अपने हाथों खिला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय निकलेगा जब इस घर से हरदौल की लाश निकलेगी।
रानी ने घृणा की दृष्टि से पान के बीड़े को देखा और वह उलटे पैर लौट आई।
रानी सोचने लगी, "क्या हरदौल के प्राण लूँ? निर्दोष, सच्चरित्र वीर हरदौल की जान से अपने सतीत्व की परीक्षा दूँ? उस हरदौल के खून से अपना हाथ काला करूँ जो मुझे बहन समझता है? यह पाप किसके सिर पड़ेगा? क्या एक निर्दोष का खून रंग न लाएगा? आह! अभागी कुलीना! तुझे आज अपने सतीत्व की परीक्षा देने की आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी कठिन? नहीं यह पाप मुझसे नहीं होगा। यदि राजा मुझे कुलटा समझते हैं, तो समझें, उन्हें मुझ पर संदेह है, तो हो। मुझसे यह पाप न होगा। राजा को ऐसा संदेह क्यों हुआ? क्या केवल थालों के बदल जाने से? नहीं, अवश्य कोई और बात है। आज हरदौल उन्हें जंगल में मिल गया। राजा ने उसकी कमर में तलवार देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौल से कोई अपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है? मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है? केवल थालों के बदल जाने से? हे ईश्वर! मैं किससे अपना दुख कहूँ? तू ही मेरा साक्षी है। जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा।
रानी ने फिर सोचा, "राजा, तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है? तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो? यदि तुमसे उसका अधिकार और मान नहीं देखा जाता, तो क्यों साफ़-साफ़ ऐसा नहीं कहते? क्यों मर्दों की लड़ाई नहीं लड़ते? क्यों स्वयं अपने हाथ से उसका सिर नहीं काटते और मुझसे वह काम करने को कहते हो? तुम खूब जानते हो, मैं यह नहीं कर सकती। यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया है, यदि मैं तुम्हारी जान की जंजाल हो गई हूँ, तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊँगी, पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना बड़ा कलंक न लगने दो। पर मैं जीवित ही क्यों रहूँ, मेरे लिए अब जीवन में कोई सुख नहीं है। अब मेरा मरना ही अच्छा है। मैं स्वयं प्राण दे दूँगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा। विचारों ने फिर पलटा खाया। तुमको पाप करना ही होगा। इससे बड़ा पाप शायद आज तक संसार में न हुआ हो, पर यह पाप तुमको करना होगा। तुम्हारे पतिव्रत पर संदेह किया जा रहा है और तुम्हें इस संदेह को मिटाना होगा। यदि तुम्हारी जान जोखिम में होती, तो कुछ हर्ज़ न था। अपनी जान देकर हरदौल को बचा लेती, पर इस समय तुम्हारे पतिव्रत पर आँच आ रही है। इसलिए तुम्हें यह पाप करना ही होगा, और पाप करने के बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा। यदि तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि तुम्हारा मुखड़ा ज़रा भी मद्धिम हुआ, तो इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम संदेह मिटाने में सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा। परंतु कैसे होगा? क्या मैं हरदौल का सिर उतारूँगी? यह सोच कर रानी के शरीर में कंपकंपी आ गई। नहीं, मेरा हाथ उस पर कभी नहीं उठ सकता। प्यारे हरदौल, मैं तुम्हें खिला सकती। मैं जानती हूँ, तुम मेरे लिए आनंद से विष का बीड़ा खा लोगे। हाँ, मैं जानती हूँ तुम 'नहीं' न करोगे, पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता। एक बार नहीं, हज़ार बार नहीं हो सकता।"
हरदौल को इन बातों की कुछ भी ख़बर न थी। आधी रात को एक दासी रोती हुई उसके पास गई और उसने सब समाचार अक्षर-अक्षर कह सुनाया। वह दासी पान-दान लेकर रानी के पीछे-पीछे राजमहल से दरवाज़े पर गई थी और सब बातें सुन कर आई थी। हरदौल राजा का ढंग देख कर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई-न-कोई काँटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके संदेह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि सावधान! किसी दूसरे के कानों में इन बातों की भनक न पड़े और वह स्वयं मरने को तैयार हो गया।
हरदौल बुंदेलों की वीरता का सूरज था। उसकी भौंहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुंदेले मरने और मारने के लिए इकट्ठे हो सकते थे, ओरछा (orchha) उस पर न्योछावर था। यदि जुझारसिंह खुले मैदान उसका सामना करते तो अवश्य मुँह की खाते, क्योंकि हरदौल भी बुंदेला था और बुंदेला अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुँह देखी नहीं करते, मारना-मरना उनके जीवन का एक अच्छा दिलबहलाव है। उन्हें सदा इसकी लालसा रही है कि कोई हमें चुनौती दे, कोई हमें छेड़ें। उन्हें सदा खून की प्यास रहती है और वह प्यास कभी नहीं बुझती। परंतु उस समय एक स्त्री को उसके खून की ज़रूरत थी और उसका साहस उसके कानों में कहता था कि एक निर्दोष और सती अबला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुँह न मोड़ो। यदि भैया को यह संदेह होता कि मैं उनके खून का प्यासा हूँ और उन्हें मार कर राज अधिकार करना चाहता हूँ, तो कुछ हर्ज न था। राज्य के लिए कत्ल और खून, दगा और फ़रेब सब उचित समझा गया है, परंतु उनके इस संदेह का निपटारा मेरे मरने के सिवा और किसी तरह नहीं हो सकता। इस समय मेरा धर्म है कि अपने प्राण देकर उनके इस संदेह को दूर कर दूँ। उनके मन में यह दुखानेवाला संदेह उत्पन्न करके भी यदि मैं जीता ही रहूँ और अपने मन की पवित्रता जताऊँ, तो मेरी ढिठाई है। नहीं, इस भले काम से अधिक आगा-पीछा करना अच्छा नहीं। मैं खुशी से विष का बीड़ा खाऊँगा। इससे बढ़ कर शूर-वीर की मृत्यु और क्या हो सकती है?
क्रोध में आकर मारू के भय बढ़ानेवाले शब्द सुन कर रणक्षेत्र में अपनी जान को तुच्छ समझना इतना कठिन नहीं है। आज सच्चा वीर हरदौल अपने हृदय के बड़प्पन पर अपनी सारी वीरता और न्योछावर करने को उद्यत है।
दूसरे दिन हरदौल ने खूब तड़के स्नान किया। बदन पर अस्त्र-शस्त्र सजा मुस्कराता हुआ राजा के पास गया। राजा भी सोकर तुरंत ही उठे थे, उनकी अलसाई हुई आँखें हरदौल की मूर्ति की ओर लगी हुई थीं। सामने संगमरमर की चौकी पर विष मिला पान सोने की तश्तरी में रखा हुआ था। राजा कभी पान की ओर ताकते और कभी मूर्ति की ओर, शायद उनके विचार ने इस विष की गाँठ और उस मूर्ति में एक संबंध पैदा कर दिया था। उस समय जो हरदौल एकाएक घर में पहुँचे तो राजा चौंक पड़े। उन्होंने सँभल कर पूछा, "इस समय कहाँ चले?"
हरदौल का मुखड़ा प्रफुल्लित था। वह हंस कर बोला, "कल आप यहाँ पधारे हैं, इसी खुशी में मैं आज शिकार खेलने जाता हूँ। आपको ईश्वर ने अजित बनाया है, मुझे अपने हाथ से विजय का बीड़ा दीजिए।"
यह कह कर हरदौल ने चौकी पर से पान-दान उठा लिया और उसे राजा के सामने रख कर बीड़ा लेने के लिए हाथ बढ़ाया। हरदौल का खिला हुआ मुखड़ा देख कर राजा की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठी। दुष्ट, मेरे घाव पर नमक छिड़कने आया है! मेरे मान और विश्वास को मिट्टी में मिलाने पर भी तेरा जी न भरा! मुझसे विजय का बीड़ा माँगता है! हाँ, यह विजय का बीड़ा है; पर तेरी विजय का नहीं, मेरी विजय का।
इतना मन में कहकर जुझारसिंह ने बीड़े को हाथ में उठाया। वे एक क्षण तक कुछ सोचते रहे, फिर मुस्करा कर हरदौल को बीड़ा दे दिया। हरदौल ने सिर झुका कर बीड़ा लिया, उसे माथे पर चढ़ाया, एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और फिर बीड़े को मुँह में रख लिया। एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरुषत्व दिखा दिया। विष हलाहल था, कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल के मुखड़े पर मुरदनी छा गई और आँखें बुझ गईं। उसने एक ठंडी सांस लीं, दोनों हाथ जोड़ कर जुझारसिंह को प्रणाम किया और ज़मीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की ठंडी-ठंडी बूँदें दिखाई दे रही थीं और साँस तेजी से चलने लगी थी; पर चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष की झलक दिखाई देती थी।
जुझारसिंह अपनी जगह से ज़रा भी न हिले। उनके चेहरे पर ईर्ष्या से भरी हुई मुस्कराहट छाई हुई थी, पर आँखों में आँसू भर आए थे। उजाले और अंधेरे का मिलाप हो गया था।

बुंदेलखंड का इतिहास (History of bundelkhand)

बुंदेलखंड  का इतिहास (History of bundelkhand)

विंध्य क्षेत्र बुंदेलखंड (bundelkhand) का इतिहास बड़ा प्राचीन है प्राचीन काल में बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र पहाड़ी पठारी रहा है। जिनके शैल शिखरों में निर्मित गुफाओं में, आश्रमों में ऋषि मुनि तपश्या किया करते थे, जालौन में जालव ऋषि थे तो कालपी में व्यास ऋषि का आश्रम था। चित्रकूट कालिंजर के पास वाल्मिकि ऋषि रहते थे। नर्मदा के तट का ब्राहम्ण धाट प्रसिद्ध है। जहा ब्रम्हा जी तप किया करते थे। इस प्रकार प्राचीन काल में बुंदलेखंड(bundelkhand) तपस्वीयों की तपो भूमि थी। कालांतर में यहा चेदी राजाओं का राज रहा जो चिदी वंश के थे। तत्पश्चात् नागों का राज्य रहा जिनकी राजधानी नागाभद्र नागौद थी। नागराजा शैव भक्त थे नाग राज्य कला, संस्कृति में उच्च कोटि का था। इनकी सत्ता सिंधु नदी के किनारे शिवपुरी क्षेत्र की थी। सिंधु के किनारे पर पवा इनकी दूसरी राजधानी थी। रामायण काल में यह क्षेत्र रामचंद्र जी के पुत्र कुश के आधीन था, जिसकी राजधानी कुशावती थी वर्तमान में कालिंजर के नदी के पश्चिमी किनारे लव पुरी थी जो रामचंद्र जी के ज्येष्ठ पुत्र लव के आधीन थी वर्तमान में लौढी महा भारत काल में इस क्षेत्र में कर्वी नगर करूषपुरी के नाम से विख्यात था जहा दलाकी–मलाकी राजाओं का राज्य था तो विराट नगरी भी इसी बुंदेलखंड (bundelkhand) में थी जिसे वर्तमान में राठ कहा जाता है। भगवान कृष्ण के मौसेरे भाई राजा शिशुपाल चंदेरी में राजा थे तो दंतवा के नाम से दतिया प्रसिद्ध था। सेवड़ा जो सिंधु नदी के तट पर है यहा ब्रम्हा के पुत्रों ने तपस्या की थी।

कहावत है –
‘‘चित्रकूट में रम रहे, रहिमन अवध नरेश जा पर विपदा परत है, सो आवत इही देश’’

भगवान राम अपने वनवास के समय अयोध्या से आकर चित्रकूट में रहे। यहा के कौल भील लोगों के सानिध्य में रहकर अनेक वर्ष चित्रकूट में विताये।
बाद में कालिंजर, पदमावती, मालथौल, खिमलासा मालवा अंचल होते हुये दक्षिण के दंण्डकारण्य में पंचवटी गोदावरी के तट पर वर्तमान में नासिक में रहे थे। महाभारत कालीन राजा नल–दमपन्ती का शासन नरवर में था। वे नरवर के ही राजा थे उस समय नरवर को नलपुर कहा जाता था। जिसका विवरण महाभार के नलों पाख्यान में है। तत्पश्चात् बुंदेलखंड (bundelkhand) में मौर्य साम्राज्य का शासन भी रहा। जिसका प्रमाण वर्तमान दतिया नगर से उत्तर पूर्व में स्थित गंुर्जरा गांव में प्राप्त अशोक का शिलालेख है। इसी समय सम्राट अशोक का प्रभाव क्षेत्र भी बुंदेलखंड (bundelkhand) रहा अशोक जो बौद्ध धर्म का अनुयायी था, जिसने सांची के स्तूप बनवाये विदिशा उसकी ससुराल थी, विदिशा क्षेत्र में तो संस्कृति और कला को काफी प्रोत्साहन मिला शुंग, कन्व सातवाहन राजाओं के समय विष्णुपुराण, वायुपुराण भागवतपुराणों का लेखन कार्य हुआ, जिनके दशवें और बारहवें स्कन्धों में इन राजाओं का वर्णन प्राप्त होता है। कुषाण राजा कनिष्क जो सूर्यदेव का उपासक था दतिया जिले के उन्नाव में प्राचीन सूर्यमंदिर स्थापित हुआ था वो नये परिवेश में आज भी है। पश्चिमी बुंदेलखंड (bundelkhand) में वालाटक ब्राहम्णों का शासन था जिनका मूल ठिकाना वेतवा के तट पर स्थित वाधाट जिला टीकमगढ़(tikamgarh) था। वे बड़े प्रतापी राजा थे। वाकाटकों का बनवाया हुआ मडखेडा में सूर्य मंदिर दर्शनीय है। वाकाटक, गुप्त और नाग राजा समकालीन थे। गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त ने नागों की सत्ता को विखंटित कर स्वयं इस क्षेत्र को अपने आधीन कर लिया था। और वैष्ठव धर्म, संस्कृति का प्रचार किया था। बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है। इसकी समय पन्ना नागौद क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन गये थे। जिनकी राजधानी गड़पैरा थी दक्षिणी पश्चिमी झाँसी (Jhansi)–ग्वालियर के अमीर वर्ग के अहीरों की सत्ता थी तो धसान क्षेत्र के परिक्षेत्र में मांदेले प्रभावशाली हो गये थे। छटवीं शताब्दी में खजुराहों में जिजोतियां ब्राहम्ण राज्य स्थापित हो गया था। जिझौती शासन काल में बुंदेलखंड (bundelkhand) की जिझौती कहा जाता था। कालांतर में आठवीं सदी के पश्वात् चंदेल राज्य का आभिरभाव हुआ था जिसकी राजधानी महोवा महोत्सवपुरी थी। चंदेलों ने बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र को एक विकसित क्षेत्र के रूप में पहचान दी थी। उन्होने बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र में चंदेली तालाबों का निर्माण कराकर उनके किनारों पर बस्तिया बसाकर बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र को कृषि के क्षेत्र में अग्रसर किया था। उस समय धान, गन्ना, वनोजप और धी को पैदावार खूब होती थी। चंदेरी का एक पानुसाह सेठ अपने टाढे लेकर इस क्षेत्र में व्यापार करने आते थे तभी से जैन व्यवसायी भी इस क्षेत्र में भाये, क्षेत्र में गुड खूब बनाया जाता था। गन्ने की पिराई वाले पत्थर के काल आज भी गांव–गांव में जाने जाते है। चंदेल राजाओं ने मंदिर स्थापत्य कला, मूर्ति स्थापत्य कला, तालाब स्थापत्य कला पर काफी जोर दिया था। गांव–गांव के चंदेली तालाब और खजुराहों(khajuraho) के विश्व प्रसिद्ध मंदिर एवं अजयगढ़(ajaygarh) के महल चंदेल काल की कला के सर्वोच्च नमूने है जो विश्वप्रसिद्ध है। सन् 1181–82 में पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल राज्य सत्ता पर आमण कर उसे वैरागढ़ उरई के मैदान में पराजित कर अस्तित्वहीन कर दिया था। पृथ्वीराज के चंदेलों की सामरिक महत्ता सांस्कृतिक वैभव को विखंटित कर दिया था। इस युद्ध में चंदेल राजा परमालेख के आल्हा–दल मलखान आदि सरदारों के साथ अन्य सभी सरदास वीरगति को प्राप्त हो गये थे। चंदेलों के बाद महोनी से बुंदेली राज सत्ता का आभिरभाव हुआ। महोनी जो जालौन जिले में पहुज नदी के किनारे बुंदेलों का ठिकाना था जहां का अधिपति सोहनपाल था। सोहनपाल को उसके भाइयों ने महोनी से खदेड दिया था। सोहनपाल महोनी छोड़ कर वेतवा के तटवर्तीय वन आच्छादित क्षेत्र में गडकुडार के समीप आया और बुंदेला, परमार, धंधेरे तीन वर्ग के क्षत्रियों का संगठन बनाकर कुठार के किले को खंगारों से छीनकर सन् 1257 में कुडार में अपनी सत्ता स्थापित कर दी थी। 1257 से 1539 ई. तक बुंदेलों की राजसत्ता कुडार में रही, तत्पश्चात् महाराजा रूद्र प्रताप ने बेतवा नदी के एक टापू पर ओर से छोर तक 1531 ई. में किले की आधारशिला रखी। क्योकि बेतवा के सूढा टापू के ओर से छोर तक किला बनने के बाद उसका नाम भी ओर छोर से ओरछा (orchha) पड़ गया था। ओरछा (orchha) का किला बड़ा महत्वपूर्ण रहा है। सधन वन के बीच से प्रवाहित बेतवा नदी जिसकी 2 धाराओं के मध्य टापू पर ओरछा (orchha) दुर्ग अजेय रहा है। जो सामरिक महत्व का अजेय किला रहा है। दुर्ग के रूप में यह वन दुर्ग, जल दुर्ग और गिरिदुर्ग का संयुक्त रूप से मिले जुले रूप का रहा है। राजा रूद्र प्रताप की मृत्यु 1531 ई. के पश्वात् उनके पुत्र भारतीचंद्र ने ओरछा (orchha) दुर्ग एवं नगर वसाहट को पूर्ण कराया और 1539 ई. में कुडार से राजधानी बदलकर ओरछा (orchha) बना ली थी। कालांतर में ओरछा (orchha) राज्य यमुना से नर्मदा तक एवं सिंधु से सतना तक अर्थात सम्पूर्ण बुंदेलखंड (bundelkhand) में फैला हुआ था। समय के साथ साथ ओरछा (orchha) राजवंश के राजकुमारों को जहा जो जागीरों दी गई थी वहा उन्होने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये थे। इस प्रकार दतिया,चंदेरी,अजयगढ़,पन्ना,चरखाई,बांदा,विजावर,जैसे सभी राज्य ओरछा (orchha) राजवंश के फुटान रहे है। ओरछा (orchha) राजवंश का राजवंशीय वटवृक्ष अथवा रिश्तेदार संबंधियों के राज्य अथवा उनके सेनापति कामदारों के द्वारा स्थापित कर लिये राज्यों के निर्माताओं का संबंध किसी न किसी प्रकार से ओरछा (orchha) राजवंश से रहा है। सन् 1729 ई. छत्रसाल बुंदेला पन्ना के मददगार बनकर मराठा पेशवा वाजीराव प्रथम पूना से जैतपुर आया था सहायता के उपलक्ष में छत्रसाल ने बुंदेलखंड (bundelkhand) का तीसरा भाग देने की शर्त पर सहायता प्राप्त की थी अस्तु बाजीराव पेशवा ने छत्रसाल की मृत्यु 1531 ई. के पश्चात् बलात बलपूर्वक बुंदेलखंड (bundelkhand) का तीसरा हिस्सा जो 36 लाख 5 हजार रूपये आय का था अपने आधीन कर लिया था चूंकि वाजीराव पेशवा पूना महाराष्ट में रहता था तथा बुंदेलखंड (bundelkhand) में उसके कर्मचारी मामल्ददार रहते थे। जो राजस्व वसूली कर पूना भेजते रहते थे चंूकि मराठे गैर क्षेत्रिय थे बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र गैर क्षेत्रीय मराठों के लिये धन आपूर्ति का एक साधन था, मामल्ददार क्षेत्र की राजस्व वसूली के साथ–साथ बुंदेले ओरे देशी राजाओं, अन्य राजाओं से चौथ एवं सरदेशमुखी बसूलकर पेशवा भेजते रहते थे जो राज्य चौथ देने में आनाकानी करता था उसके राज्य और नगर को वे अपनी ताकारी–पिंडारी सेना द्वारा लूट लिया करते थे। गांबों, नगरों को भाग लगा देते थे। झाँसी (Jhansi) का किला जो ओरछा (orchha) राज्य के महाराणा वीरसिंह जू देव प्रथव का वनवाया हुआ था, मराठा मामन्ददार सरदार नारोंशंकर ने अपने कब्जे में कर ओरछा (orchha) के राजा पृथ्वीसिंह के समय ओरछा (orchha) नगर की खूब लूट मार की थी ओरछा (orchha) नगर के सभी लोगों को बलपूर्वक झाँसी (Jhansi) में बसाया था और ओरछा (orchha) को जनहीन कर दिया था मकानों में उसने आग लगा दी थी जब ओरछा (orchha) नगर निवासियों को नागोशंकर बलपूर्वक झाँसी (Jhansi)ले गया तो ओरछा (orchha) में भगवान रामराजा और किला महल आदि शेष रहे थे तब महाराजा विमाजीत सिंह ने सन् 1783 ई. में राजा की भी सैनिक शक्ति छीड़ हो गयी थी तो उन्होनें 1783 में ओरछा (orchha) से भागकर टेहरी टीकमगढ़(tikamgarh) को अपनी राजधानी बना ली थी। महाराजा विमजीत सिंह ने टेहरी पर पहाड़ी पर किला बनवाया। पहाड़ी के पश्चिमी तरफ राजधानी नगर का विस्तार कराया, क्योंकि वो भगवान कृष्ण के भक्त थे। श्री कृष्ण का एक नाम टीकमजी है, तो कृष्ण उफ‍र् टीकमजी के नाम पर टेहरी के किले एवं नगर का नाम टीकमगढ़(tikamgarh) रखा। 1783 से 17 दिसम्बर 1947 तक अर्थात महाराजा विमजीत सिंह से महाराज वीरसिंह जू देव द्वितीय तक ओरछा (orchha) राज्य का संचालन कार्य टीकमगढ़(tikamgarh) राजधानी से हुआ। अंत में प्रजातांत्रिय शासन की मांग बुलंद हुई, जिस कारण 17 दिसम्बर 1947 की महाराजा वीरसिंह देव द्वितीय ने अपने ओरछा (orchha) राज्य सत्ता को जनता के हाथ सौपकर उत्तरदायी शासन दे दिया था और जनता को राजतंत्र से मुक्त कर दिया था।

संस्कृति:–

लोगों की रीति–नीति, धर्म–आस्था, बोलचाल, भाषा, व्यवहार, खाना–पीना, शादी–विवाह, संस्कार आदि उन सब बातों का योग होता है, जिनका निर्वहन व्यक्ति को अपने जीवन में करना पड़ता है। संस्कृति मानव सभ्यता और संस्कारों का पुष्प होता है। आचार–व्यवहार और परंपरायें जिनका निर्वहन सामाजिक तौर पर व्यक्ति को एवं उसे पारिवारिक रूप में निर्वहन करना पड़ता है, वह सब संस्कृति है। दूसरे शब्दों में समाज और समाज के जाति को लोगों की परंपराओं का निर्वहन आदतों और व्यवहारों का निर्वहन संस्कृति होती है।बुंदेलखंड (bundelkhand) की संस्कृति सद्भावी संस्कृति है। क्षेत्र के लोगों के शादी–विवाह रीति–रिवाज एक समान है। खान–पान आपसी व्यवस्था भी लगभग समान है, पितृ देवों के साथ–साथ भूत, प्रेत, राम, कृष्ण, विष्णु, से उनका लगाव है। व्रत त्यौहार और धार्मिक उत्सव यहां कि संस्कृति का जीवंत बनाये हुये है। जो भारतीय राष्टीय संस्कृति का आधार भी है। दान पुण्य, सद्भाव, सहिष्णुता, देवदर्शन, देवालयों की तीर्थयात्रायें, विभिन्न धर्माें का अंदर एवं धार्मिक सद्भाव यहां के लोगों का उच्चतम गुण है। जो बुंदेलखंड (bundelkhand) की संस्कृति में पाया जाता है।

पहनावा :–

बुंदेलखंड (bundelkhand) की संस्कृति के दर्शन लोगों के खान–पान पहनावे में भी होते है। लोग घरों में सामूहिक रूप से बैठकर भोजन करते है, उनका भोजन सादा होता है। अधिकांश लोग साखिक भोजन करते है, दाल–चावल रोटी खाते है। अनाजों के विभिन्न खाद्य पदार्थ बनाकर खाना यहा की विशेषता है। वनफलों का भी प्रयोग किया जाता है। लोग ईश्वर को समर्पित करने के बाद ही खाते है, जिसे लोग भोग लगाना कहते है। बुंदेलखंड (bundelkhand) में लोग घोती कुर्ता तथा साफा पहनते है, ग्रामीण लोग पिछोरा चादर भी रखते है, कुर्ता कमीज बुस्कर्ट शर्ट भी पहनी जाती है। स्त्रिया घोती, ब्लाउज, सलूका, कुर्ती पहनती है। वर्तमान में घोती के साथ सापा ंंपेटीकोट का प्रचलन अधिक हो गया है। बच्चे लडकिया पेंट शर्ट, सलवार दुपट्टा, जूता मोजा लड़कों की तरह समान रूप से पहनने लगी है। बालकों का मुंडन संस्कार एवं अन्य 16 प्रकार के संस्कार किये जाते है। परिवार के किसी वरिष्ठ की मृत्यु के उपरांत शुद्धता के नाम पर पुरूष वर्ग के बाल भी बनवाये जाते है। जबकि लडकियाेंं के बाल केवल एक वर्ष से 2 वर्ष के भीतर मुंडन संस्कार किया जाता है। जिसमें मां के गर्भ मेंं पैदा हुये बालों को अलग किया जाता है। बाद में महिला के बाल कभी भी नहीं बनवाये जाते है। चूड़ी पहनने का रिवाज बुंदेलखंड (bundelkhand) मेंं विशेष है। परंतु विथवा महिला हाथ में चूड़ी नहीं पहनती और न ही सिंदूर भरती है। मांग में सिंदूर लगाना महिला के लिए सुहागिन होने का प्रतीक है। महिलायें नाक में पुंगरिया नथ, कानों में वाली, झुमकी, कन्नफूल पहनती है

Tuesday 4 February 2014

Literary Awards of Bundelkhand

बुंदेलखंड (bundelkhand) की साहित्यिक पुरूस्कार

1. देव पुरूस्कार :–ओरछा के महाराजा वीरसिंह द्वितीय ने 1934 में प्रारंभ किया था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सर्वश्रेष्ठ पुरूस्कार रहा है। अब यह पुरूस्कार मध्य प्रदेश शासन द्वारा श्रेष्ठ उपन्यासकार को दिया जाता है।
2. तुलसी पुरूस्कार
3. कामताप्रसाद गुरू पुस्कर
4. ईसुरी पुरूस्कार
5. लोक साहित्य
6. अंबिका प्रसाद दिव्य पुरूस्कार
7. मैथिलीशरण गुप्त पुरूस्कार
8. तुलसी सम्मान लोक कला पर 1 लाख रूपये का पुरूस्कार दिया जाता है।
9. केदार सम्मान बांदा नगर का श्रेष्ठ साहित्यकार को दिया जाता है।
10. बुंदेली श्री जगनक एवं छत्रसाल पुरूस्कार, बुदेलखंड साहित्य एवं संस्कृति परिषद भोपाल द्वारा दिया जाता है।
 
 

1 . Tulsi Puraskar : By Governement of Madhya Pradesh


2 . Kamta Prashad Guru Puraskar : By Government ofMadhya Pradesh in the fieldof Grammer


3 . Isuri Puraskar : By Government of Madhya Pradesh in the field of Lok Sahitya


4 . Ambika Prasad Divya Puraskar : By Government of Madhya Pradesh for the non Hindi Literature


5 . Tulsi Samman : This samman of Rs 1 Lac is given since 1983 in the field of Lok Kala.


6 . Kedar Samman : This samman is given to best sahityakar of Banda every year.


7 . Bundelsri Jagnik & Chhatrasal Puraskar : This annual award is beinggiven by Bundelkhand Sahitya and Sanskriti Parishad, Bhopal


8 . Dev Puraskar : It was started by Maharajaof Orcha Sri Veer Singh II in 1934. It has been given to Sri Dularelal Bhargav, Sri Ramkumar Verma, Sri Shyamnarayan Pandey. Since 1959-60 it is being given by Government of Madhya Pradesh for the best Literary Novel.

9.Rashtra Kavi Maithlisharan Gupt Award : Since 1999 this annual award being given by Rashtra Kavi Maithli Sharan Gupt Memorial Trust, New Delhi for the good Literary work since 1999. In the year2008 Vishista Puraskar it was given to Sri Hare Ram Nema "Sameep" for his "Jaise awam sath chalega kaum". 2008 award was given to Sri Rajendra Nagdev for his work "Andhi Yatrayen". Vishesh Samman 2008 was given to Sri Ramcharan Gupta "Ram" Indore for his "Jeevan Darpan".

हाय रे गरीबी बुन्देलखण्ड की सबई रोउट है

ग़रीबी और पलायन
उन्होंने याद दिलाया कि 1948 में बुंदेलखंड (bundelkhand) और बघेलखंड के 35 राजाओं ने अपनी रियासतों को भारत सरकार को सौंपने से पहले एक संधि पर दस्तख़त किए थे जिसमे अलग बुंदेलखंड (bundelkhand) राज्य बनाने का वादा किया गया था!
हमें योजनाएँ परियोजनाएँ नही बल्कि अपने विकास के लिए अपना राज्य चाहिए! "राजा बुंदेला"
बुंदेला ने बुंदेलखंड (bundelkhand) की ग़रीबी और पलायन का जिक्र किया और कहा, " हमें योजनाएं परियोजनाएं नही बल्कि अपने विकास के लिए अपना राज्य चाहिए."
उनका दावा है कि अलग बुंदेलखंड (bundelkhand) राज्य में आर्थिक संसाधनों की कमी नही होगी, क्योंकि वहां कई प्रकार के खनिज पाए जाते हैं.
बुंदेला इस सवाल पर झुंझला गए कि बुंदेलखंड (bundelkhand) में अलग राज्य की मांग को आम जनता का समर्थन अभी तक दिखाई नही पड़ा है.
उन्होंने कहा कि अगर मुख्यमंत्री मायावती अपनी बात पर गंभीर हैं तो उन्हें अलग राज्य के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पास करना चाहिए, हालांकि क़ानूनी तौर पर यह अनिवार्य नही है.
बुंदेला कांग्रेस के समर्थक माने जाते हैं. लेकिन उनका कहना है कि उनका आंदोलन किसी दल से प्रेरित नही है.
पिछड़ापन :– बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र जो विस्तृत भूभाग में फैला हुआ भूभाग है इसकी प्राकृति सीमा (इतसिंध उतसतना, इतिनर्मदा–उतयमुना)
अर्थात् पश्चिम में सिंधु नदी से पूर्व में सतना नदी एवं उत्तर में यमुना नदी से दक्षिण में सतना नदी एवं उत्तर में यमुना नदी से दक्षिण में नर्मदा नदी के मध्य फैला हुआ भूभाग है।
जो विध्यांचल का भूभाग है इस भाग में विश्यांचल पर्वत की श्रेणियाँ, पहाडियां फैली हुई है।
इसे प्राचीन काल में विन्ध्येला कहा जाता था जो कालांतर में बुन्देला और विन्ध्येलखंड से बुंदेलखंड (bundelkhand) बन गया था।
बुंदेलखंड (bundelkhand) को दे भागों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम उत्तरी बुंदेलखंड (bundelkhand) जो वेतवा नदी के उत्तर में पडता है। इसमें जालौन, हमीरपुर, महोवा, बांदा, चित्रकूट आदि जिले है।
इस उत्तरी बुंदेलखंड (bundelkhand) में महोवा, बांदा के पाठाा क्षेत्र को छोड़कर अधिकांशत: समतल भूमि है। यह कछारी नदियों का कछारीय क्षेत्र है।
जिसमें बिना पानी के भी फसलें हो जाया करती रही है। दूसरा भाग दक्षिणी पूवी बुंदेलखंड (bundelkhand) है।
जो पहाड़ी टौरियाऊ, पठारी, ढालू, जंगली, रांकड, पथरीला भूभाग है। इस क्षेत्र की नदियाँ सूखी पहाड़ी, पठारी है।
जिनमें पानी केवल वर्षा ऋतु में रहता है व गर्मियों मे सूखी रहती है। लोगों को सदैव अकाल झेलना पड़ा रहा है।
इस भूभाग में पन्ना, छतरपुर (chhatarpur) , टीकमगढ़(tikamgarh) ललितपुर (lalitpur) , झाांसी, शिवपुरी, सागर, दमोह आदि जिले है।
पानी के अभाव में यहाँ कृषि अविकसित पिछडी रही है।
इस पहाडी रांकड पथरीली भूमि में प्राचीन काल से वर्षा ऋतु में बोयी जाने वाली खरीफ के फसल के मोटे अनाजों (ज्वार, कोदों, धान, कुटकी, राली, लठारा, समा, उर्दा एवं तिल) की फसलें ही पैदा होती रही है। इन्ही फसलों के द्वारा लोग अपना जीवन गुजारते रहे है। जंगली पहाड़ी भूमि होने से लोग पशुपाल भी करते थे।
बनोपज पर भी लोग निर्भर रहा करते थे। आदिवासी गाद, कंदा, लाख, पेड़ों से निकालकर बेचकर गुजर करते थे।
रवि की फसल बहुत कम मात्रा में पैदा की जाती थी क्योंकि कृषि भूमि की सिंचाई के लिए जल नही था।
जो चंदेली तालाब गांवों में थे, उनमें वर्षातीय, धरातलीय जल संग्रह कर ग्राम के लोग अपने दैनिक विस्तार में एवं पशुओं के पीने के उपयोग में लाया करते थे। चंदेली तालाबों में पानी निकालने का कोई साधन (औनों, सलूस) आदि नही हुआ करते थे।
बरसाती अतिरिक्त पानी यदि तालाब में आ जाता था तो वह तालाबों की दोनों ओरे से पाखियों, उबेलों से पीछे लातब से बाहद निकल जाया करता रहा है।
तालाब के बांध के पीछे जहाँ पानी हमेशा बहता रहता है उसे बहारू क्षेत्र बोलते है।
जिसमें धान और गन्ना की फसलें पैदा की जाती रही है। जबकि उबेलाओं का पानी बहारू क्षेत्र के ऊपरी भागों के टरेटों से होकर जाया करता था।
जिस कारनण टरेटों की फसलों की सिंचाई का पानी कम ही मिलता था।
ऐसी स्थिति में टरेटों में जौ की फसल ही हो पाती थी कुओं या जहाँ कही चाट (डौली, पनारी) से पानी निकालने की सुविधा बन पडती वहाँ थेडी बहुत गेहू की फसल हो जाती है।
तात्पर्य है कि बुंदेलखंड (bundelkhand) कृषि के क्षेत्र में प्राचीन से ही पिछड़ा रहा है।
वृक्ष भी अच्छे फलदार नही रहे है। चूंकि यह शुष्क भूमि वाल क्षेत्र है ऐसी शुष्क भूमि के पेड़ों में जो फल लगते है रसदार, गदेदार कम गुठलीदासर ज्यादा होते है। जो स्वास्थ्यवर्धक भी नही है। इस प्रकार फलों के क्षेत्र में भी हम पिछड़े है।
पशु भैंस, गाय, बकरी, गाडर (भेड़) भी दुधारू नहीं है क्योंकि पहाड़ी, टौरयाऊ, पथरीली भूमि में धास की कमी सदैव बनी रहती है।
पशुधन भी लाभकारी नहीं रहा है। खनिज संपदा का कभी दोहन ही नहीं हुआ। बुंदेलखंड (bundelkhand) में भूमि को पुराने लकड़ी के हलों द्वारा भूमि की गुडाई सी जुताई कर खेती की जाती रही है।
पथरीली जमीन होने के कारण गहरी जुताई नहीं हो पाती। जिससे पैदावार कम होती रही है। धरती के अंदर बहुमूल्य खनिज संपदा है परंतु वह प्राचीनकाल से अविकसित रही है।
खनिज संपदा का दोहन नहीं किया गया। जिस कारण लोगों की आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब रही है। मजदूरों के लिए काम भी यहाँ पर नहीं है।
रोटी, पानी व रोजी का अभाव है जिस कारण लोग रोजी रोटी के लिए दूसरे क्षेत्रों में भटकते रहे है।
शिक्षा पिछड़ेपन और अन्य सारे पिछडेपन के लिए एक रामवाण औषधी मानी जाती है तो युगानुरूप धरती के अनुरूप और लोगों की आर्थिक स्थिति के अनुरूप शिक्षा की अच्छी व्यवस्था कभी नही रही है।
तात्पर्य है कि बुंदेलखंड (bundelkhand) के लोग श्रम करने के बाद भी रोटी नही पा पाते खेती की भूमि सीमांतक है
जिस कारण भूखे अधपेट लोग भाग्य के भरोसे अथवा ईश्वर के भरोसे जीवन काटने को मजबूर रहे है।
गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कवितावली में कहा था –
"खेती न किसान को, भिखारी को न भीखवाल।
बनिक को न बनिज, न चाकर को चाकरी।।
जीविकाविहीन लोग, सीध मान्स सोचबस।
कहैं एक एकन सौं, कहाँ जाएं का करि।।"
इसलिए हम प्राचीन काल से ही हर क्षेत्र में पिछड़े रहे है और हमेशा हम परमात्मा का मुँह देखते रहे है।
अथवा सेठ साहूकारों के ऋणी रहे है और रोजी रोटी की तालश में दूसरे क्षेत्रों में भटकते रहे है।

Rivers and Tank । नदिया और तालाब

बुंदेलखंड (bundelkhand) के लोककवि घाघ ने कहा था, 'अपने करे नसैनी, दैवइ दोषन देय' यानी खुद ही अपनी बर्बादी का इंतजाम करो और बाद में किस्मत को दोष दे दो।
हरियाली और पानी को तरसते बुंदेलखंड (bundelkhand) पर ये पंक्तियां एकदम सटीक साबित होती हैं। जिस धरती की कोख से लगभग 40,000 कैरेट हीरा निकाला जा चुका है और 14,00,000 कैरेट हीरे का भंडार मौजूद है, वह धरती आज बंजर होती जा रही है तो इसके लिए प्रकृति कम और इंसानी कुप्रबंधन ज्यादा जिम्मेदार है।
मेंथा के कारण क्षेत्र की सर्वाधिक उपजाऊ बेल्ट जालौन, उरई और झाँसी (Jhansi)आज बंजर होने के कगार पर हैं। इस इलाके की जीवन रेखा यहां के तालाब थे लेकिन आज अधिकांश तालाब सूख गए हैं। महोबा के मदन सागर, कीरत सागर, कल्याण सागर, विजय सागर और सलालपुर तालाब के बड़े हिस्से पर स्थानीय लोगों ने कब्जा जमा लिया है। बात चाहे कजरी की हो या आल्हा की। बुंदेलखंड (bundelkhand) के उत्सवों और लोक-परंपराओं का पानी के साथ गहरा नाता रहा है। लेकिन ये परंपराएं क्या टूटीं, प्रकृति ही रूठ गई। महोबा के सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह का कहना है कि समस्याओं का समाधान इन्हीं लोक-परंपराओं में मिल सकता है और अगर परंपराएं नहीं रहीं तो कोई भी पैकेज बुंदेलखंड (bundelkhand) को नहीं बचा पाएगा। ऐसे में बुंदेलखंड (bundelkhand) में हीरा तो मिलेगा लेकिन पानी नहीं और रहीमदास कह गए हैं कि बिन पानी सब सून।

बुंदेलखंड (bundelkhand) में पानी और फसल के लिए तरस रहे हैं किसान ग्रेनाइट पत्थर की कटाई से निकली धूल ने खेतों को बना दिया बंजर खनन के लिए जंगलों को काटा गया और बारिश गई रूठ कम बारिश की वजह से तालाब सूखे, भूजल स्तर गिर गया बुंदेलखंड (bundelkhand) के तालाबो और पानी की व्यवस्था के लिए राज्य सरकार ने करोडों रूपए लगाये हैं लकिन उनका नतीजा कुछ भी नहीं मिला है जिसका एक मात्र कारन है की वो पैसा उन योजनाओ पर पूरी तरह से खर्च ही नहीं हुआ अगर सरकार बुंदेलखंड (bundelkhand) मैं पानी की समस्या का निराकरण चाहती है तो सरकार को चाहिए की जो तालाब कुंए वावरी जो की पहले बनवाए जा चुके है उनका केबल जीर्णोद्धार करवा करके भी यहाँ की पानी की समस्या को सुलझाया जा सकता है क्योंकि जो तालाब बुंदेलखंड (bundelkhand) मैं बनाये बनाये गए हैं उनकी भोतिक बनावट कुछ इस तरह की है की एक तालाब मैं पानी भर जाने के बाद उसके निकासी से दुसरे तालाब मैं ही उसका पानी जाता है इसलिए यदि राज्य सरकार उन समस्त जल संसाधनों का जीर्णोद्धार करवा के भुन्देल्खंड से पानी की समस्या को पूर्ण रूप से कतम करवा सकती है चंदेलों ने बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र को एक विकसित क्षेत्र के रूप में पहचान दी थी। उन्होने बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र में चंदेली तालाबों का निर्माण कराकर उनके किनारों पर बस्तिया बसाकर बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र को कृषि के क्षेत्र में अग्रसर किया था। उस समय धान, गन्ना, वनोजप और धी को पैदावार खूब होती थी। चंदेरी का एक पानुसाह सेठ अपने टाढे लेकर इस क्षेत्र में व्यापार करने आते थे तभी से जैन व्यवसायी भी इस क्षेत्र में भाये, क्षेत्र में गुड खूब बनाया जाता था। गन्ने की पिराई वाले पत्थर के काल आज भी गांव–गांव में जाने जाते है।
चंदेल राजाओं ने मंदिर स्थापत्य कला, मूर्ति स्थापत्य कला, तालाब स्थापत्य कला पर काफी जोर दिया था। गांव–गांव के चंदेली तालाब और खजुराहों के विश्व प्रसिद्ध मंदिर एवं अजयगढ़ के महल चंदेल काल की कला के सर्वोच्च नमूने है जो विश्वप्रसिद्ध है।

बुंदेलखंड (bundelkhand) की प्रसिद्ध नदियाँ

बेतवा नदी :- बेतवा भारत के मध्य प्रदेश राज्य में बहने वाली एक नदी है। यह यमुना की सहायक नदी है। यह मध्य प्रदेश में भोपाल से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा,झाँसी (Jhansi), जालौल आदि जिलों में होकर बहती है। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं किन्तु झाँसी (Jhansi)के निकट यह काँप के मैदान में धीमे-धीमें बहती है। इसकी सम्पूर्ण लम्बाई 480 किलोमीटर है। यह हमीरपुर के निकट यमुना में मिल जाती है। इसके किनारे सांची और विदिशा के प्रसिद्ध व सांस्कृतिक नगर स्थित हैं।

केन:-यमुना की एक उपनदी या सहायक नदी है जो बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र से गुजरती है। दरअसल मंदाकिनी तथा केन यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं क्योंकि इस के बाद यमुना गंगासे जा मिलती है। केन नदी जबलपुर, मध्यप्रदेश से प्रारंभ होती है, पन्ना में इससे कई धारायें आ जुड़ती हैं और फिर बाँदा, उत्तरप्रदेशमें इसका यमुना से संगम होता है। इस नदी का "शजर" पत्थर मशहूर है।

विन्ध्याचल :-विन्ध्य का पठार- मालवा पठार के उत्तर में तथा बुंदेलखंड (bundelkhand) पठार के दक्षिण में विन्ध्य का पठारी प्रदेश स्थित है। इस प्रदेश के अन्तर्गत प्राकृतिक रूप से रीवा, सतना, पन्ना, दमोह, सागर जिले के कुछ हिस्से शामिल हैं। इसका कुल क्षेत्रफल 31,954 किलोमीटर है। विन्ध्य शैल समूह के मध्य (आधा महाकल्प) आर्कियन युग की ग्रेनाइट का प्रदेश टीकमगढ़(tikamgarh), पश्चिमी छतरपुर (chhatarpur) , पूर्वी शिवपुरी और दतिया में पड़ता है।

नर्मदा :-‘नमामि देवि नर्मदे’ मेकलसुता महीयसी नर्मदा को रेवा नाम से भी जाना जाता है। नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की सबसे पुरानी, प्रमुख और भारत की पाँचवी बड़ी नदी है। विन्ध्य की उपत्यकाओं में बसा अमरकंटक एक वन प्रदेश है। जहाँ की जैव विविधता अत्यन्त समृद्ध है। नर्मदा को मध्यप्रदेश की जीवन रेखा भी कहा जाता है।

धसान :-रायसेन जिला के जसरथ पर्वत से निकलकर धसान नदी सिलवानी तहसील की सिरमऊ, बेगमगंज तहसील की पिपलिया जागीर, बील खेड़ा, रतनहारी, सुल्तानागंज, उदका, टेकापार कलो, बिछुआ, सनेही, पडरया, राजधर, सोदतपुर ग्रामों के समीप से प्रवाहित होकर सागर जिले के नारियावली के उस पार तक बहती है।

चम्बल:-यह नदी मध्यप्रदेश और राजस्थान के बीच सीमा रेखा बनाती है। यह पश्चिमी मध्यप्रदेश की प्रमुख नदियों में से एक है। जो यमुना नदी के दक्षिण की ओर से जाती है। पहले यह उत्तर-पूर्व की ओर फिर पूर्वी दिशा की ओर बहती हुई विसर्जित हो जाती है।

सिंध:-सिंध नदी मध्यप्रदेश के गुना जिले के सिरोंज के समीप से उद्गमित होती है। गुना, शिवपुरी, दतिया और भिण्ड जिलों में यात्रा करती हुई सिन्ध इन क्षेत्रों को अभिसिंचित करती है। इसके तट पर अनेक दर्शनीय और धार्मिक स्थल मानव मन को उद्वेलित करते हैं। इसकी यात्रा का अंतिम पड़ाव दतिया-डबरा के मध्य उत्तर-दिशा की ओर बहकर चम्बल नदी है।

मंदाकिनी:-चित्रकूट भगवान राम की कर्मस्थली रही है। जहाँ भगवान राम ने साढ़े ग्यारह वर्ष का वनवास काटा चित्रकूट विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी पर अवस्थित है। इसी पर्वत श्रृंखला में स्थित महर्षि अत्रि एवं माता सती अनुसुइया आश्रम से पयस्विनी मंदाकिनी का उद्गम हुआ। ऐसा कहा जाता है कि सती अनुसुइया ने अपने तपोबल से मंदाकिनी को उत्पन्न किया था।

यमुना:-यमुना नदी का अपभ्रंश नाम जमुना भी है इसे कालिंदी और कई नामों से जाना जाता है। बुंदेलखंड (bundelkhand) में यमुना, केन और चन्द्रावल नदियों के बीच का पठारी असमतल भाग ‘तिरहार क्षेत्र’ कहलाता है। उत्तर से यमुना नदी एवं दक्षिण में तीव्र प्रपाती कगार, मध्य उच्च प्रदेश की सीमा बनाते हैं। इस प्रदेश की ऊँचाई पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ती जाती है।

किलकिला:-किलकिला नदी का उद्गम पन्ना जिले की बहेरा के निकट छापर टेक पहाड़ी से हुआ है। यह नदी पन्ना से उद्गमित होकर पन्ना जिला में ही प्रवाहित केन नदी में विसर्जित हो जाती है। यह पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा को बहती है।

उर्मिल:-उर्मिल सिंचाई परियोजना मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश की संयुक्त परियोजना है। जो छतरपुर (chhatarpur) -कानपुर मार्ग पर उर्मिल नदी पर बनाई गई है। उर्मिल बाँध का निर्माण उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा कराया गया है तथा नहरों का निर्माण मध्यप्रदेश शासन ने किया है। इस परियोजना के पूर्ण हो जाने से रवि फसलों के लिए सिंचाई की सुविधा प्राप्त हुई है।

पहुँज:-बालाजी सूर्य मंदिर-दतिया से 17 किलोमीटर की दूरी पर उनाव गाँव में ब्रह्मबालाजी का सूर्य मंदिर है, जो पुष्पावती के पश्चिमी घाट पर स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि पहुँज में नहाने और बाला जी की सूर्य यंत्र की काले पत्थर की प्रस्तर प्रतिमा को जल चढ़ाने से चर्म रोगादि से मुक्ति मिलती है। बाला जी का यह मंदिर अपनी विशालता एवं भव्यता के लिए जाना जाता है। यह दतिया जिले का एक महत्वपूर्ण मंदिर है।

टोंस:-टोंस का मैकल की पहाड़ियों तमसा कुण्ड से उद्गम हुआ है। इस नदी को टमस या तमसा भी कहते हैं। छत्रसाल के जमाने की बुंदेलखंड (bundelkhand) की पूर्वी सीमा टोंस नदी बनाती थी। इतना ही नहीं उनके शासित बुंदेलखंड (bundelkhand) की चारों दिशाओं की सीमायें प्राकृतिक रूप से चार नदियाँ ही निर्मित करती थीं। विन्ध्याचल का पूर्वी भाग कैमूर पर्वत श्रेणी है जो मिर्जापुर तक विस्तारित है। यह पर्वत श्रृंखला सोन और टोंस नदियों को एक दूसरे से अलग करती है।

चेलना नदी:-पावा क्षेत्र जैन धर्मावलम्बियों का तीर्थ स्थल है। इसी क्षेत्र के दक्षिण, पश्चिम की ओर चेलना नदी बहती है। यह बेतवा की सहायक नदी है। चेलना आगे चलकर बेतवा में मिल जाती है। दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र पावा जी क्षेत्र से जैन मुनि को मोक्ष मिला था। यहाँ की पहाड़ी सिद्ध पहाड़ी कहलाती है।

जामनेर:-इस नदी का प्राचीन पौराणिक नाम जाम्बुला है। यह बेतवा की सहायक नदी है। जामनेर की सहायक नदी यमदृष्टा है। जो आजकल जमड़ार नाम से जानी जाती है। जमड़ार नदी टीकमगढ़(tikamgarh) से 6 किलोमीटर दूरी पर स्थित कुण्डेश्वर शिवतीर्थ से गुजरती है। कुण्डेश्वर इस क्षेत्र की आस्था का केन्द्र है जो समुद्र तल से 1255 फुट की ऊँचाई पर स्थित ‘शिवपुरी’ नाम से भी जाना जाता है।

English-Bundelkhandi

English-Bundelkhandi

I
Mein,hum
He
Woh,unko/unke(his)
She
Same
You
Tum,tumao(yours)
It
Je,yeh
This
Jo
That
Voh
A
Ek
Come(You come)
Aao,aeio,ane(to invite someone)
Came
Aao,aagao
Will come
Ahe,ajjo,aaio
Open
Kholio,kholo
Opened
Kholdao,khol dao
Will open
Kholhe,kholain
Sit
Baitho,birajo,padharo
Walk
Chalo,chaliye,chalen,chal
Eat
Khao,khiye
Drink
Pio
Win
Jit,jeeto
Go
Jao,javi
Run
Doudo,bhago,gadba,kurru
I go
Hum jat hain.hum ja ray,me jat hon
He goes
Bo gao
He eats an apple
Bo ek seb khat hai,bo ek seb kha rao
He is eating an apple
Bo ek seb kha rao hai
He ate an apple
Oone ek seb khao tho/hato
I saw the film last week
Humne pichle hafta ek picher(filam) dekhi hati
She came by bus yesterday
Ba kal motor se aai hati
They went to the mosque
Be majid gaye hate,be majjid gay te
He slept the whole night
Bo puri rat bhar sot rao,bo to raat bhar sout rao
He wrote well in the examination
Oone pricha achchi kari
He has eaten
Oone kha lao,oone to kha lao
He will eat
Bo khahe,bo abe kha he
He will go
Bo jahe,bo je
He will come
Bo aahe,bo aay
What is your name?
Tumao naam(nau) ka hai,
What
Ka,kya
Is
Hai,ho
Your
Tumao
Name
Nam,nao
What did you do?
Tum ka karat ho?,tum ka kar ray?
What should I do?
Hum ka Karen?/hum ko ka karma chahiye?
What can I do?
Hum ka kar sakat hain?
What are the questions?
Sabal/prishn ka hain/hai?
What were the questions?
Sabal ka hato?
What is the last question?
Akhri sabal ka hato
What is written in the letter?
Chitthi mein ka likho hai?
What you had been told?
Tmein ka batao hato?
What will be the answer?
Jabab/uttar hueiye?
Why did you come?
Tum kaye aye ho?
Why did you sleep?
Tum kaye soye hate?
Why did you tell him to go?
Tumne ookon jaabe ke lane kaye kaei?
Why did he bring the bag?
Bo jhola(bag)kaye lao hato?
Why did she pay the money?
Oone rupaeia(money) kaye daye?
Why did they sit there?
Be ute kaye (why) baithe hate?
Why do you drive the car?
Tum motor kaye chalat ho?
Why are they late for the meeting?
Be meeting mein deri se kaye aye hate?
How did you come?
Tum kaisen aye?
How did you sleep?
Tum kaisen soye?
How did you drive?
Tumne kaisen chalai?
How did you write?
Tumne kaise likho?
How many apples are there in my hand?
Hath mein kitte seb hainge?
How many did you take?
Tumne kitte laye?
How much did he pay you?
Oone tumein kaise paisa daye?
How much distance to go?
Aur kitti door jane hai?
How was the journey yesterday?
Kal ki jatra /kal ko safar kaiso hato?
Which is your favourite colour?
Tumao pasand ko rang kaun so hai?
In which room did you sleep?
Tum kaun se kotha(room)/karma mein soye hate?
Which story did you tell?
Tumne kaun si kahani kaei?
Which is the sweetest fruit?
Subse meetho fal kaun so hai?
Which is the best newspaper in Hindi?
Subse achcho Ingreji akhbar kaun so hai?
Which Indian state has the largest population?
Subse jada janta koun se raj mein hai?
Where did you come from?
Tum kiten se aaye hon?
Where did you sleep?
Tum kite soye hate?
Where is the manager’s cabin?
Munager ko karma kite hai?
Where should I go?
Mokon/humkhon kite jane chahiye?
Whom should I contact?
Humen kaun se milne chahiye?
Is it a book?
Ka ja kitab/pustak hai?
It is a book
Ja kitab hai
Is it the answer?
Ka jo uttar hai/aaye?
It is the answer
Jo/j uttar hai
Will you come with me?
Tum humaye saath aaho?
I shall come with you.
Hum tumaye saath aahein
Will you give me your pen?
Tum humkhon aono pen de ho?
Yes, of course.
Hao jaroor dehein
Do you love me?
Tum humein chahat ho?
Yes, I love you.
Hao,hum tume chahat hain
Can you give me your pen?
Ka tum apno pen de sakat ho?
Can you lift the box?
Ka tum buxa khaska sakat ho?
Can you write the exam?
Ka tum paper /purcha likh sakat ho?
Did you have your lunch?
Ka tumne khana khao hai?
How are you?
Tum kase ho/aao?
I am fine
Hum theek hainge