ओरछा का किला :–
बेतवा नदी के वाये तट पर 25–21 उत्तरी अक्षांश पर 78–42 पूर्वी देशांतर पर स्थित है। टीकमगढ़ जिले में बेतवा नदी के मध्य में एक द्वीप पर बना हुआ है इसका निर्माण कुडार के राजा रूद्रप्रताप ने वैसाख सुदी तेरस विक्रम संवत् 1588 (1531 अप्रैल) की द्वीप के ओर से छोर तक किला निर्माण की आधार शिला रखी थी। किला परकोटा सूढा (द्वीप) के ओर से छोर तक बनाया गया था। जिस कारण इसका नाम ओर – छोर से मुखसुख के कारण ओरछा हो गया था। 1531 में ही रूद्रप्रताप की मृत्यु हो जाने के कारण उनके पुत्र भारतीचन्द्र (1531 – 54) ने आठ वर्ष अथक मेंहनत करके किले को पूर्ण करवाया था।किला परकोटा, राजमहल (राजमंदिर) दीवानखाना, दुर्गगेर, मंदिर, शिवालय, बारूदखाने, कुंआ एवं 25 मील लंबी परिधि वाला शहरकोट (शहरपनाह) बनवाकर ओरछा नगर किला निर्मित करा कर 1539 में कुडार से ओरछा राजधानी स्थापित कर ली थी। ओरछा दुर्ग बादाम की आकृति में 12 किमी. की परिधि में है। परकोटे में 19 गुर्जे है। जिन्हें जगह जगह तिकोसियां देकर मजबूती दी गई है उसमें जगह जगह केनन (तोप) होल रखे गये है। बेतवा नदी की एक धारा पर 14 द्ववारी पुल परकोटा से संलग्न बनाया गया था जिससे किले के अंदर पहुंचते थे। इसके 2 दरवाजे शाही दरवाजा और शिव दरवाजा उत्तर पश्चिम दिशा में है। ओरछा दुर्ग 2 भागों में विभाजित था। पुल के उत्तरी भाग में राजमहल लिये राजमंदिर भी कहतें है, था उसके समीप संलग्न दीवानखाना था यहां से शासन, प्रशासन संचालित होता था। सेना भी दुर्ग के अंदर रहती थी। जबकि पुल से दक्षिण की ओर एक नदी से 1 परकोटे से घेर कर रानी महल, फूलबाग, रनवासी मंदिर बनाये गये थे। चतुभुर्ज मंदिर नौचौका महल, इस रनिवासी परिसर में थे।
रानीमहल और राजमंदिर के दरवाजे 14 द्ववारी पुल पर आमने सामने थे। किला मैदान बडे बडे सुसज्जित ऊंचे दरवाजों से सुशोभित किया गया था। ओरछा के राजा मधुकर शाह के समय उनकी महारानी गणेशकुंवर अयोध्या से अपने आराध्य रामचंद्र,लक्ष्मण और सीता की मूर्तियों को 1574 ई. में ओरछा ले आयी थी और अपने महल को रामराजा मंदिर नाम देकर प्रतिष्ठित कराया था।महाराजा वीरसिंह दमव ने अपने मित्र जहाँगीर नागरिक बस्ती बाजार सबकुछ रानीमहल परकोटे के बाहर दक्षिण पश्चिम में थी। नगर का पृथक से प्रस्तर परकोटा था, नगर परकोटे से बाहर जाने के लिये तीन दरवाजे थे जिन्हें मोडेर दरवाजा, सैमर और चंदेरी दरवाजा कहा जाता था। तात्पर्य की ओरछा मध्य कालीन भारत का महत्वपूर्ण नगर था जो दिल्ली और आगरा जैसे तत्कालीन नगरों की श्रेणी में था। परंतु बुंदेलखंड में गैरक्षेत्रीय मराठों के आने से ओर नारोशंकर मराठा सरदार के 1742 में झाँसी किला ले लेने से ओरछा नगर पर राहू लग गया था।
मराठे ओरछा नगर को नित्यप्रति लूटा करते थे। ओरछा राजा सामंतसिंह से चौथ सरदेशमुखी लेने लगे थे। यहां तक कि नागोशंकर ने 1745 में ओरछा नगर के लोगों को जबरदस्ती झाँसी में बसवाया और ओरछा नगर को खंडहरों में तब्दील कर दिया था। पर्यटकों के स्वागत में किले के अंदर बुंदेला स्थापत्य रौली का अजीब भूल भुलैया सा महल जहांगीर महल बनवाया था उसी के दक्षिण पश्चिम में महाराजा उदोतसिंह ने उदोतनिवास भवन बनवाया था जिसे शीशमहल कहा जाता है। किले के पश्चिमी परिसर में महाराजा बीरसिंह देव की राजनर्तकी प्रवीणराय की हवेली है तो किले के बाहर रानीमहन के पीछे बुंदेलखंड के महान कवि केशवदास की हवेली रही है। ओरछा मध्यकाल में तो शानोशौकत वाला नगर था ही यहां के महल मंदिर चतुभुर्ज मंदिर दर्शनीय थे। जिनकी सानी के मंदिर अनयत्र देखने को नहीं मिलतें है। यह वर्तमान में एक पर्यटक नगरी है।
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